Sunday, December 30, 2012

स्वीकार करना सीखिए.......सुरेश अग्रवाल 'अधीर'


जिंदगी में इस तरह आप,
ना कभी रोना सीखिए,
जिस तरह की दे रब जिंदगी,
उसे जीना सीखिए ।

फूलों की सी सेज होती नहीं है,
हर वक्त जिंदगी ,
ग़म, बेबसी, काँटे तो क्या,
गले लगाना सिखिये ।

त्याग समर्पण भी है जरूरी
एक सच्चे प्यार में ,
प्यार पाने से पहले,
प्यार को खोना भी सीखिए।

बेवफाई ,आंसू,उदासी गर,
दे गया वो तो ग़म नही,
इश्क में चलता है ये सब,
स्वीकार करना सीखिए।

काँटे भी चुभेंगे दामन में,
अगर करोगे प्यार तुम,
ये सब चाहते नही ज़नाब,
फिर दूर रहना सीखिए। 

-सुरेश अग्रवाल 'अधीर'

Thursday, December 27, 2012

तुम्हारे नेह का हरसिंगार...............'फाल्गुनी'



नहीं दिखता तुम्हारी आँखों में
अब वो शहदीया राज
नहीं खिलता देखकर तुम्हें
मेरे मन का अमलतास, 


नहीं गुदगुदाते तुम्हारी
सुरीली आँखों के कचनार
नहीं झरता मुझ पर अब
तुम्हारे नेह का हरसिंगार, 

सेमल के कोमल फूलों से
नहीं करती माटी श्रृंगार
बहुत दिनों से उदास खड़ा है
आँगन का चंपा सदाबहार, 

रिमझिम-रिमझिम बूँदों से
मन में नहीं उठती सौंधी बयार
रुनझून-रुनझून बरखा से
नहीं होता है सावन खुशगवार, 

बीते दिन की कच्ची यादें
चुभती है बन कर शूल
मत आना साथी लौटकर
अब गई हूँ तुमको भूल।

--स्मृति जोशी 'फाल्गुनी'



Monday, December 24, 2012

दामिनी यानी बिजली................."फाल्गुनी"












वह हरदम चहकती रहती,
बिंदास और बेबाक।
अन्याय
वह सहन कर ही नहीं सकती।
यही कहा है 'दामिनी'
के भाई ने।
'दामिनी' पूरे देश के लोगों
के लिए एक टीवी चैनल ने
यही नाम रखा है उस कन्या का।
दामिनी यानी बिजली।
जो वक्त पड़ने पर उजाला करती है,
और छेड़खानी करने पर विनाश भी।
ऊर्जा का वह स्त्रोत होती है
और रोशनी से भरपूर।

खुशी की बात यह है
कि इतना-इतना झेल लेने के बाद
भी वह टूटी नही,
झुकी नहीं, रूकी नहीं।
लड़ रही है
वह अपने आप से।
अपने कष्टों से
और अपने हर जख्म से। 


--स्मृति आदित्य "फाल्गुनी"

Sunday, December 23, 2012

तोड़ कर झिझोड़ दिया क्यूँ.......इतनी वहशत से .....अलका गुप्ता

हौसले अरमान सभी होंगे पूरे एक दिन इक आस थी |
समेट लुंगी बाहों में खुशियाँ सारी यही इक आस थी ||

तोड़ कर झिझोड़ दिया क्यूँ.......इतनी वहशत से |
देखे दुनियाँ तमाशबीन सी ना मन को ये आस थी ||

टूट गई हूँ ...विकल विवश सी मन में इतनी दहशत है |
शर्म करो उफ्फ !!! प्रश्नों से..जिनकी ना कोई आस थी ||

घूम रहे स्वच्छंद अपराधी देखो !!! भेड़िये की खाल में |
बन गई अपराधिनी...मैं ही कैसे..इसकी ना आस थी ||

मानवता से करूँ घृणा या देखूं हर मन को संशय भर |
रक्षक समझी थी ना विशवासघात की मन को आस थी ||

मिलती नहीं सजा क्यूँ....समझ ना पाय 'अलका' यह |
इन घावों की सजा दे कोई...जिसकी दिल को आस थी ||

--अलका गुप्ता

Wednesday, December 19, 2012

वो जितना रोई होगी बस में दिल्ली की लड़की मेरी आंखों के आंसू भी सुखाए उसी पगली ने.....गिरीश मुकुल

हां सदमा मग़र हादसा
देखा नहीं कोई !
और न तो साथ मेरे
जुड़ती है कहानी हादसे जैसी……!!
मग़र नि:शब्द क्यों हूं..?
सोचता हूं
अपने चेहरे पे
सहजता लांऊ तो कैसे ?
मैं जो महसूस करता हूं
कहो बतलाऊं वो कैसे..?
वो जितना रोई होगी बस में दिल्ली की लड़की
मेरी आंखों के आंसू भी सुखाए उसी पगली ने
न मैं जानता उसे न पहचानता हूं मैं ?
क्या पूछा -”कि रोया क्यूं मैं..?”
निरे जाहिल हो किसी पीर तुम जानोगे कैसे
ध्यान से सुनना उसी चीख
सबों तक आ रही अब भी
तुम्हारे तक नहीं आई
तो क्या तुम भी सियासी हो..?
सियासी भी कई भीगे थे सर-ओ-पा तब
देखा तो होगा ?
चलो छोड़ो न पूछो मुझसे
वो कौन है क्या है तुम्हारी अब वो कैसी है ?
मुझे मालूम क्या मैं तो
जी भर के
दिन भर रोया हूं
मेरे माथे पे
बेचैनियां
नाचतीं दिन भर !
मेरा तो झुका है
क्या तुम्हारा
झुकता नहीं है सर..?

सुनो तुम भी
दिल्ली से आ रहीं चीखैं.. ये चीखैं
हर तरफ़ से एक सी आतीं.. जब तब
तुम सुन नहीं पाते सुनते हो तो गोया
समझ में आतीं नहीं तुमको
समझ आई तो फ़िर किसकी है
ये तुम सोचते होगे
चलो अच्छा है जानी पहचानी नहीं निकली !!
हरेक बेटी की आवाज़ों फ़र्क करते हो
अगर ये करते हो ख़ुदा जाने क्या महसूस करते हो..?
हमें सुनना है हरेक आवाज़ को
अपनी समझ के अब
अभी नहीं तो बताओ
प्रतीक्षा करोगे कब तक
किसी पहचानी हुई आवाज़ का
रस्ता न तकना तुम
वरना देर हो जाएगी
ये बात समझना तुम !!

--गिरीश मुकुल

क्या लिखूं, कैसे लिखूं.....................रामचरण शर्मा 'मधुकर'


किस-किसकी बात लिखूं
मैं सोच रहा हूं
क्या लिखूं, कैसे लिखूं
मानव की भूख लिखूं
या पीड़ा का संसार लिखूं
पावन दिवाली के संग
जलते आचार लिखूं
कुंठित कलम हाथ में लेकर
किस-किस का व्यवहार लिखूं
किस-किसका व्यापार लिखूं
सुबह अजान सांझ के घंटे
कहीं पर पिछड़े कहीं हैं अगड़े
इन सबकी तकरार लिखूं या
मन का हाहाकार लिखूं
कैसे-कैसे गोरखधंधे
और घोटाले
बीच भंवर में, फंसने वाले
कुशल खिलाड़ी, नाविक
आघातों पर आघात लिखूं
या बेशरमी की बात लिखूं
सोच-सोच मन घुन जाता है
रात-रात पलकें खुल जाती हैं
गीत प्रगति के लिख डालूं
या बिखरा संसार लिखूं
क्रय पीड़ा जन-जन की या
महलों का परिहास,
कृषकों का शोषण लिख डालूं
या श्रम गंगा की धार लिखूं
खोए हैं कुछ स्वप्न सजीले
कुछ तो शेष रहे
मन में गांठ, बंधे हैं सारे
अब सपनों की बात लिखूं
या सच का इतिहास लिखूं।
- रामचरण शर्मा 'मधुकर'

जियो उस प्यार में जो मैंने तुम्हें दिया है.........अज्ञेय


जियो उस प्यार में
जो मैंने तुम्हें दिया है,
उस दु:ख में नहीं जिसे
बेझिझक मैंने पिया है।

उस गान में जियो
जो मैंने तुम्हें सुनाया है,
उस आह में नहीं‍ जिसे
मैंने तुमसे छिपाया है।

उस द्वार से गुजरो
जो मैंने तुम्हारे लिए खोला है,
उस अंधकार से नहीं
जिसकी गहराई को
बार-बार मैंने तुम्हारी रक्षा की भावना से टटोला है।

वह छादन तुम्हारा घर हो
जिसे मैं असीसों से बुनता हूं, बुनूंगा;
वे कांटे-गोखरू तो मेरे हैं
जिन्हें मैं राह से चुनता हूं, चुनूंगा।

वह पथ तुम्हारा हो
जिसे मैं तुम्हारे हित बनाता हूं, बनाता रहूंगा;

मैं जो रोड़ा हूं, उसे हथौड़े से तोड़-तोड़
मैं जो कारीगर हूं, करीने से
संवारता-सजाता हूं, सजाता रहूंगा।

सागर किनारे तक
तुम्हें पहुंचाने का
उदार उद्यम ही मेरा हो;

फिर वहां जो लहर हो, तारा हो,
सोन-परी हो, अरुण सवेरा हो,

वह सब, ओ मेरे वर्ग!
तुम्हारा हो, तुम्हारा हो, तुम्हारा हो।

--सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय'

Tuesday, December 18, 2012

बस, थोड़े से बच जाया करो..........'फाल्गुनी'






 
तुम
सारा दिन रहा करो
सबके पास
सबके लिए
पर
सांझ के आंचल में
स्लेटी रंग उतरते ही
और
रात की
भीनी आहट के साथ ही
बचे रह जाया करो
थोड़े से
मेरे लिए
ताकि मैं सो सकूं
इस विश्वास के साथ कि
तुम हो अब भी मेरे लिए..
मेरे साथ..
मेरे पास...
ज्यादा नहीं मांगती मैं तुमसे
बस, बच जाया करो
बहुत थोड़े से
सांझ और रात के दरम्यान
मेरे लिए, मेरे प्यार के लिए...
वह प्यार
जो बस तुम्हारे लिए
आता है मेरे मन में
और सुबह के बाद
तुम्हारे ही साथ

पता नहीं कहां
चला जाता है
तुम्हारी व्यस्तताओं में उलझकर,
शाम होते ही
बस थोड़े से
बहुत थोड़े से
बच जाया करो मेरे लिए...
ताकि मैं देख सकूं
सतरंगी सपने
दुनिया की कालिमा पर
छिड़कने के लिए। 

--स्मृति जोशी 'फाल्गुनी'

Monday, December 17, 2012

संजय शूलिका .....................संजय जोशी 'सजग'



शूलिका क्रमांक 01 से 05 का प्रकाशन पूर्व में कर चुकी हूँ

*[06] *
खनन
चल रहा है
सहन.....
करना होगा
मनन
पर्यावरण का
हो रहा है दमन
भ्रष्ट हो रहे है चमन .....

* [07] *
दिल मांगे मोर
ज्यादा मिले तो
हो जाता बोर .......
* [08] *
२०-२० याने
फटाफट क्रिकेट
तू चल में आया
हमे नही भाया
आस्ट्रेलिया ने
कैसा है धोया
भारत ने खोया
सम्मान है ......
.
* [09] *
मनुष्य के वेश
में
कई उल्लू है देश में
सच कहो आते तैश में
क्या करे ऐसे केस में

* [10] *
कतार
बन गई राष्ट्रीय
समस्या
इसमे लग कर
करनी पड़ती तपस्या
आशा उत्साह को
करती तार - तार
होता है यह बार -बार
.
----संजय जोशी 'सजग'

Sunday, December 16, 2012


चाँद तन्हा है आस्माँ तन्हा
दिल मिला है कहाँ-कहाँ तन्हा

बुझ गई आस, छुप गया तारा
थरथराता रहा धुआँ तन्हा

ज़िन्दगी क्या इसी को कहते हैं
जिस्म तन्हा है और जाँ तन्हा

हमसफर कोई गर मिले भी कहीं
दोनों चलते रहे यहाँ तन्हा

जलती-बुझती-सी रौशनी के परे
सिमटा-सिमटा सा इक मकाँ तन्हा

राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जाएँगे ये जहाँ तन्हा।
--मीना कुमारी

सभी के जवाब छोड़ गया...........सैयद सादिक अली



शरीफ चोर था कुछ तो जनाब छोड़ गया
कबाब खा गया लेकिन शराब छोड़ गया

जो रास्ते में बहुत मेहरबान था मुझ पर
सफर के अंत में सारा हिसाब छोड़ गया

पढ़ीं तो निकलीं कविताएं अर्थहीन सभी
वह अपनी याद में ऐसी किताब छोड़ गया

मुकदमे, कर्जे, रहन-जायदाद के झगड़े
मरा तो देखिए क्या-क्या नवाब छोड़ गया

सवाल जितने उठाए थे पत्रकारों ने
वह गोल-मोल सभी के जवाब छोड़ गया। 

-सैयद सादिक अली

Saturday, December 15, 2012

उनका साया..............रमेश जोशी




उनका साया जहां-जहां पर
तिनका तक ना उगा वहां पर

अपना नाम लिखे दाने को
ढूंढ़ा जाने कहां-कहां पर

दुनिया का मालिक है तो फिर
क्यूं ना आता अभी यहां पर

दिल में है तो दिल को पढ़ ले
हम ना लाते जुबां पर

गुल को भी ‍तो खिलने की जिद
क्यूं सारे इल्जाम खिजां पर। 

- रमेश जोशी

Friday, December 14, 2012

खीर-सी मीठी अम्मा हर पल..........सहबा जाफ़री



 

 धूप घनी तो अम्मा बादल 
छांव ढली तो अम्मा पीपल
गीली आंखें, अम्मा आंचल
मैं बेकल तो अम्मा बेकल।
  





रात की आंखें अम्मा काजल 
बीतते दिन का अम्मा पल-पल
जीवन जख्मी, अम्मा संदल
मैं बेकल तो अम्मा बेकल। 


बात कड़ी है, अम्मा कोयल
कठिन घड़ी है अम्मा हलचल
चोट है छोटी, अम्मा पागल
मैं बेकल तो अम्मा बेकल। 


धूल का बिस्तर, अम्मा मखमल
धूप की रोटी, अम्मा छागल
ठिठुरी रातें, अम्मा कंबल
मैं बेकल तो अम्मा बेकल।

चांद कटोरी, अम्मा चावल
खीर-सी मीठी अम्मा हर पल
जीवन निष्ठुर अम्मा संबल
मैं बेकल तो अम्मा बेकल। 

--सहबा जाफ़री

Wednesday, December 12, 2012

अहसास हैं कुछ.............अश्विनी कुमार पाण्डेय


अहसास हैं कुछ भूखे-प्यासे, तोड़ रहे दम......
दूध आस्तीन के साँपों को पिलाते चलिए......

कहते हैं सभी, लोग यहाँ अच्छे नहीं हैं......
अपना भी गिरेबान कभी झाँकते चलिए......

दुश्मन से दिल्लगी ये सदा ठीक नहीँ है......
बस दोस्तों की भीड मेँ, पहचानते चलिए......

ढूंढोगे एक, मिलेंगे फिर सैंकड़ों यहाँ......
कुछ रौशनी नजर की तेज बढाते चलिए......

मैंने सुना,बिवाइयों का ओस है इलाज......
हरी, नर्म घास मखमली को रौंदते चलिए.......

- अश्विनी कुमार पाण्डेय

Tuesday, December 11, 2012

कोमल सर्दी की गुलाबी ठिठुरन................फाल्गुनी



कोमल सर्दी की गुलाबी ठिठुरन में
नर्म शॉल के गर्म एहसास को लपेटे
तुम्हारी नीली छुअन
याद आती है,
 



याद
जो बर्फीली हवा के
तेज झोंकों के साथ
तुम्हें मेरे पास लाती है,
तुम नहीं हो सकते मेरे
यह कड़वा आभास
बार-बार भला जाती है,

जनवरी की शबाब पर चढ़ी ठंड
कितना कुछ लाती है
बस, एक तुम्हारे सिवा,
तुम जो बस दर्द ही दर्द हो
कभी ना बन सके दवा,
नहीं जान सके
तुम्हारे लिए
मैंने कितना कुछ सहा,
फिर भी कुछ नहीं कहा... 


---स्मृति जोशी  'फाल्गुनी'

आओ, आज जिंदगी जी लें!.......डॉ. मृदुल जोशी ( एन आर आई )

 
 
 
आओ, आज जिंदगी जी लें!
किरणों की तारें छेड़
मीड़, तोड़ों, तानों में
लरज-लरज
कुछ गीत सुनहले गाता है सूरज
सुध-बुध खो लें।

मीठी ख़ामोशी में घुल‍-मिल
रतजगी चांदनी
बरसी है
झम-झम, झम-झम
तन-मन भर लें!

रंग-बिरंगी पोशाकों में
सजे-धजे
प्यारे पंछी
जिन प्यारी-प्यारी बातों में
डूबे
छुपकर सुन लें।

यह उछल-कूदती नदिया

नन्हीं बिटिया-सी
दौड़-दौड़ कुछ ढूंढ रही है
इधर-उधर
हम भी ढूंढें!

बच्चों की किलकारी-सी
बिखरी-बिखरी मासूम महक
इन फूलों की
आओ छू लें!

इस धरती में हैं बचे बहुत
कहने-सुनने-गुनने के गुन
फिर यूं ही रात-दिवस रीतें!
कुछ तो संभले!

क्या रखा उलझती बातों में
क्या लाभ घात-प्रतिघातों में
ये बातें सब बेमानी हैं
हम सीधे-सादे सरल बनें!
आओ, आज जिंदगी जी लें! 
 
- डॉ. मृदुल जोशी  ( एन आर आई )

Monday, December 10, 2012

क्षितिज के पार...............डॉ. माधवी सिंह

मन को तृप्त करती तो है
रोशनी दिवस की
रात्रि के पहर में
क्षितिज के पार दिखाई देता है

अगणित तारे, तारामंडल
और नक्षत्रों का समूह
मन को अनंत की
सीमा के पार ले जाता है

जीवन के स्वरूप में
कुछ ऐसा ही रहस्य समाया है
सुख का मद और दुख की वेदना
एक ही चक्र की माया है

हां, जब चाह होगी उस दृष्टि की
जो आत्मा अनंत को दिखा सके
तब मिलेगा आनंद वह जो
है छिपा गहरे अंतरंग में।

- डॉ. माधवी सिंह