Monday, September 30, 2013

जीने वालों तुम्हें हुआ क्या है............."अख्तर"शीरानी


किसको देखा है ये हुआ क्या है,
दिल धड़कता है माज़रा क्या है.

इक मुहब्बत थी मिट चुकी या रब
तेरी दुनिया में अब धरा क्या है

दिल में लेता है चुटकियां कोई
है इस दर्द की दवा क्या है

हूरें नेकों में बता चुकी होंगी,
बाग़-ए-रिज़वां में अब रखा क्या है

उसके अहद-ए-शबाब में जीना
जीने वालों तुम्हें हुआ क्या है

अब दुआ कैसी है दुआ का वक़्त
तेरे बीमार में रहा क्या है

याद आता है लखनउ ‘अख्तर’
ख़ुल्द हो आएँ तो बुरा क्या है 

-"अख्तर"शीरानी


"अख्तर"शीरानी
उर्दू के शायर,
असली नामः मो. दाऊद खान
जन्मः 4, मई 1905, टोंक, राजस्थान
मृत्युः सितम्बर,1948, लाहोर, पाकिस्तान
 

मेरे सीने पे अलाव ही लगाकर देखो.............अहमद नदीम क़ासमी

किस क़दर सर्द है यह रात-अंधेरे ने कहा
मेरे दुशमन तो हज़ारों हैं - कोई तो बोले

चांद की क़ाश भी तहलील हुई शाम के साथ
और सितारे तो संभलने भी न पाए थे अभी

कि घटा आई, उमड़ते हुए गेसू खोले
वह जो आई थी तो टूटके बरसी होती

मगर एक बूंद भी टपकी न मेरे दामन पर
सिर्फ़ यख़-बस्ता हवाओं के नुकीले झोंके

मेरे सीने में उतरते रहे, खंजर बनकर 

कोई आवाज नहीं- कोई भी आवाज नहीं

चार जानिब से सिमटता हुआ सन्नाटा है
मैंनें किस कर्ब से इस शब का सफ़र काटा है

दुशमनों! तुमको मेरे जब्रे-मुसलसल की कसम
मेरे दिल पर कोई घाव ही लगाकर देखो

वह अदावत ही सही, तुमसे मगर रब्त तो है
मेरे सीने पे अलाव ही लगाकर देखो

-अहमद नदीम क़ासमी

चांद की क़ाशः टुकड़ा, तहलीलः घुलना, यख़-बस्ताःबहुत ठण्डी
जानिबः ओर, कर्बः दुख, जब्रे-मुसलसलः निरंतर अत्याचार
अदावतः दुश्मनी, रब्तः लगाव

यह रचना मुझे दैनिक भास्कर के रसरंग पृष्ट से प्राप्त हुई




अहमद नदीम क़ासमी
परिचय
मशहूर पाकिस्तानी श़ायर और साहित्यकार
जन्मः 20 नवम्बर,1916, सरगोधा
मृत्युः 10 जुलाई,2006, लाहोर

 












Sunday, September 29, 2013

ये गली सूनी पड़ी है घर चलो.................फ़ानी जोधपुरी


रात की बस्ती बसी है घर चलो
तीरगी ही तीरगी है घर चलो

क्या भरोसा कोई पत्थर आ लगे
जिस्म पे शीशागरी है घर चलो

हू-ब-हू बेवा की उजड़ी मांग सी
ये गली सूनी पड़ी है घर चलो

तू ने जो बस्ती में भेजी थी सदा
लाश उसकी ये पड़ी है घर चलो

क्या करोगे सामना हालत का
जान तो अटकी हुई है घर चलो

कल की छोड़ो कल यहाँ पे अम्न था
अब फ़िज़ा बिगड़ी हुई है घर चलो

तुम ख़ुदा तो हो नहीं इन्सान हो
फ़िक्र क्यूँ सबकी लगी है घर चलो

माँ अभी शायद हो "फ़ानी" जागती
घर की बत्ती जल रही है घर चलो 

-फ़ानी जोधपुरी 

सौजन्यः सतपाल ख्याल
http://aajkeeghazal.blogspot.in/2013/09/blog-post.html

Saturday, September 28, 2013

ज़मीर और मतलब की यलग़ार में.............मुमताज़ नाज़ां


ज़मीर और मतलब की यलग़ार में
उजागर हुए ऐब किरदार में

गिरा है ज़मीर ऐसा इंसान का
क़बा बेच आया है बाज़ार में

न पूछो वहाँ ऐश राजाओं के
जहां संत लिपटे हों व्यभिचार में

तजर्बे ये हासिल हैं इक उम्र का
निहाँ हैं जो चांदी के हर तार में

तमद्दुन ने हम को अता क्या किया
कि इंसानियत थी फ़क़त ग़ार में

गुलों की नज़ाकत ने ताईद की
अजब सी कशिश है हर इक ख़ार में

कोई नर्म कोंपल उभर आयेगी
“इन्हीं ज़र्द पत्तों के अंबार में”

न “मुमताज़” जीता यहाँ सच कभी
ये सब मंतक़ें यार बेकार में

-मुमताज़ नाज़ां 09867641102

यह रचना मुझे  lafzgroup.wordpress.com में पढ़ने को मिली
आप भी पढ़ सकते हैं इसे यहाँ- http://wp.me/p2hxFs-1oH
चित्र गूगल महराज की कृपा से



Friday, September 27, 2013

इस दिल में तुम्हारी यादें.........मनीष गुप्ता



क्यूँ खुद में कैद होकर
लिए फिरता हूँ खुद को
दर्द और ग़मों से भरा
खंडहर सा मकान कोई

साथ है ख्याबों के कारवाँ
उनकी यादों को थामे हुए
चल रहे हैं यूं थके थके से
जैसे भटके हों लंबे सफर में

गुजरे लम्हे डरा रहे हैं
रात के काले साये बनकर
धड़कनों पे पहरा है कोई
मौन हैं जज़्बात दिल के

वक़्त की गहरी धुन्ध में
मिट गए हैं कुछ निशान
बस रह गयी हैं तो सिर्फ
इस दिल में तुम्हारी यादें

-मनीष गुप्ता

Thursday, September 26, 2013

थाम कर पृथ्वी की गति..............दिविक रमेश


चाहता हूं
रुक जाए गति पृथ्वी की
काल से कहूं सुस्ता ले कहीं
आज मुझे बहुत प्यार करना है ज़िन्दगी से।

खोल दूंगा आज मैं
अपनी उदास खिड़कियां
झाड़ लूंगा तमाम जाले और गर्द
सुखा लूंगा सीलन-भरे परदे।

कहूँगा
सहमी खड़ी हवा से
आओ, आ जाओ आँगन में
मैं तुम्हें प्यार दूंगा,
जाऊँगा तुम्हारे पीछे-पीछे
खोजने एक अपनी-सी खुशबू
शरद के पत्तों-सा।

रात से कहूँगा
ले आओ ढ़ेर से तारे
सजा दो जंगल मेरे आसपास
मैं उन्हें आँखों की छुवन दूंगा।

खोल दूंगा आज
समेटी पड़ी धूप को
जाने दूंगा उसे
तितलियों के पंख सँवारने।
थामकर पृथ्वी की गति

रोककर कालचक्र
आज हो जाऊंगा मुक्त।
बहुत प्यार करना है ज़िन्दगी से।

--दिविक रमेश

याद मेरी है वहां, गुजरी बहारों की तरह..........फ़ातिमा हसन



चांदनी रात में कुछ फीके सितारों की तरह,
याद मेरी है वहां, गुजरी बहारों की तरह..

जज़्ब होती रही हर बूंद मिरी आँखों में
बात करता रहा वो हलकी फुवारों की तरह..

ये बियावां सही तन्हां तो कुछ भी नहीं
दूर तक फैले हैं साये भी चिनारों की तरह..

बात बस इतनी है इस मोड़ पे रस्ता बदला
दो क़दम साथ चला वो भी हजारों की तरह..

कोई ताबीर नहीं कोई कहानी भी नहीं
मैंनें तो ख्वाब भी देखें हैं नज़ारों की तरह

बादबां खोले जो मैंने तो हवाएँ पलटीं
दूर होता गया इक शख़्स कनारों की तरह

फ़ातिमा तेरी ख़ामोशी को भी समझा है कभी
वो जो कहता रहा हर बात इशारों की तरह..

-फ़ातिमा हसन


Sunday, September 22, 2013

वो बुलबुलें कहाँ वो तराने किधर गए..........."अख्तर"शीरानी


ऐ दिल वो आशिक़ी के फ़साने किधर गए
वो उम्र क्या हुई वो ज़माने किधर गए

वीराँ हैं सहन ओ बाग़ बहारों को क्या हुआ
वो बुलबुलें कहाँ वो तराने किधर गए

है नज्द में सुकूत हवाओं को क्या हुआ
लैलाएँ हैं ख़मोश दिवाने किधर गए

उजड़े पड़े हैं दश्त ग़ज़ालों पे क्या बनी
सूने हैं कोह-सार दिवाने किधर गए

वो हिज्र में विसाल की उम्मीद क्या हुई
वो रंज में ख़ुशी के बहाने किधर गए

दिन रात मय-कदे में गुज़रती थी ज़िन्दगी
'अख़्तर' वो बे-ख़ुदी के ज़माने किधर गए 

-"अख्तर"शीरानी


"अख्तर"शीरानी
उर्दू के शायर,
असली नामः मो. दाऊद खान
जन्मः 4, मई 1905, टोंक, राजस्थान
मृत्युः सितम्बर,1948, लाहोर, पाकिस्तान


Saturday, September 21, 2013

पत्नी तो नहीं हैं न हम आपकी..............दिविक रमेश

नहीं लिखा गया तो
एक ओर रख दिया कागज
बंद कर दिया ढक्कन पॆन का
ऒर बैठ गया लगभग चुप
माथा पकड़ कर।

"रूठ गए क्या",
आवाज आई अदृश्य
हिलते हुए
एक ओर रखे कागज से,
"हमें भी तो मिलनी चाहिए न कभी छुट्टी।
पत्नी तो नहीं हैं न हम आपकी!"

बहुत देर तक सोचता रहा मैं
सोचता रहा-

पत्नी से क्यों की तुलना
कविता ने?

करता रहा देर तक हट हट
गर्दन निकाल रहे
अपराध बोध को।

खोजता रह गया कितने ही शब्द
कुतर्कों के पक्ष में।
बचाता रहा विचारों को
स्त्री विमर्श से।

पर कहाँ था इतना आसान निकलना
कविता की मार से!

रह गया बस दाँत निपोर कर--
कॊन समझ पाया है तुम्हें आज तक ठीक से
कविता?

"पर
समझना तो होगा ही न तुम्हें कवि।"
आवाज फिर आई थी
ऒर मॆं देख रहा था
एक ओर पड़ा कागज
फिर हिल रहा था।


-दिविक रमेश

http://divikramesh.blogspot.in/2012/10/blog-post_21.html

Friday, September 20, 2013

वहीं चंद मोती भी बिखरे मिलेंगे.............अस्तित्व "अंकुर"


जहां भी तुम्हें दिल के टुकड़े मिलेंगे,
वहीं चंद मोती भी बिखरे मिलेंगे,

मैं बैठा बुलंदी पे यूं ही नहीं हूँ,
हरे हों न हों जख्म गहरे मिलेंगे,

मेरे दिल की गहराइयों में जो उतरे,
तो दरिया में सागर के कतरे मिलेंगे,

नया इक नगर बस गया है जहां पर,
कई गाँव भी तुमको उजड़े मिलेंगे,

मेरे घर में इंसान मिलने हैं मुश्किल,
कई बेज़ुबान और बहरे मिलेंगे,

त’आल्लुक नहीं जिनसे अब मेरा कोई,
वो बुनियाद में मेरी ठहरे मिलेंगे,

भले सांस लेने में आती हो दिक्कत,
मगर जब मिलोगे तो हंस के मिलेंगे,

मेरी शायरी और तेरे जख्म “अंकुर”,
ग़ज़ल बन के सारे जहां से मिलेंगे,

-अस्तित्व "अंकुर"
सौजन्यः अन्सार कम्बरी फेसबुक से

Wednesday, September 18, 2013

उल्लास और हर्ष-भरे सत्र, अब कहाँ.........दानिश भारती




उल्लास और हर्ष-भरे  सत्र, अब कहाँ
होते हैं लोग झूम के एकत्र  अब कहाँ

सन्देश आते-जाते हैं अब तो हवाओं में
काग़ज़, क़लम, दवात कहाँ, पत्र अब कहाँ

मैं जिन पलों में सोचूँ तुम्हें, हैं वो दिव्य पल
आनन्द खोज पाऊँ मैं अन्यत्र अब कहाँ

क्यूँ मान्य होते जाते हैं फूहड़ लिबास ही
गरिमा थे जो बदन की, गए वस्त्र अब कहाँ

मन्नत भी पूरी होती है, वन्दन करो सही
यूँ मत कहो, कि आस के नक्षत्र अब कहाँ

'बापू' ने जो सिखाये  'अहिंसा' के गुर हमें
सद्भाव, आत्म-बल से भरे शस्त्र अब कहाँ

जो पढ़ सको, तो पढ़ लो इन्हीं शब्दों में मुझे
कह दूँ मैं मन के भाव यूँ, सर्वत्र अब कहाँ

थी काव्य-साधना की जो "दानिश" परम्परा
गुरु-शिष्य अब कहाँ, वो भला छत्र अब कहाँ

- दानिश भारती


सत्र=सम्मलेन, बैठकें, अन्यत्र=कहीं ओर, दूसरी जगह, नक्षत्र=ग्रह-सितारे, सर्वत्र=हर जगह, छत्र=आश्रय, शरण-स्थल, पाठशाला

Tuesday, September 17, 2013

एक तस्वीर अंधेरे से उभर आई है..............फ़ातिमा हसन



सब्ज़ रातों पे सियाह रात उतर आई है
एक तस्वीर अंधेरे से उभर आई है.

चाँद जब भी मिरे आंगन में उगा ऐसा लगा
उसकी आँखों की कशिश और निखर आई है.

जाने क्या कह गया दरिया में उतरता सूरज
दूर तक हंसती हुई लहर नज़र आई है..

एक मानूसन सी खुशबू है मगर वो तो नहीं
उससे मिल कर ये हवा मेरे नगर आई है..

मानूसनः जानी-पहचानी

- फ़ातिमा हसन


सैयदा अनीस फातिमा....( फ़ातिमा हसन )
जन्मः 25, दिसम्बर, 1953, करांची, पाकिस्तान  

Monday, September 16, 2013

मिरे खुलूस का अंदाज़ ये भी सच्चा है..........फ़ातिमा हसन


मैं टूटकर उसे चाहूँ यह इख्तियार भी हो
समेट लेगा मुझे इसका एतबार भी हो

नई रुतों में वो कुछ और भी करीब आए
गई रुतें का सुलगता-सा इंतज़ार भी हो

मैं उसके साथ को हर लम्हा मोतबर जानूँ
वो हमसफर है तो मुझसा ही बेदयार भी हो

मिरे खुलूस का अंदाज़ ये भी सच्चा है
रखूं न रब्त मगर दोस्ती शुमार न हो

सफ़र पे निकलूं तो रस्में-सफ़र बदल जाए
किनारा बढ़ के कभी खुद हमकिनार भी हो.

-फ़ातिमा हसन 

इख्तियारः अधिकार, एतबारः भरोसा, लम्हाः क्षण, मोतबरः विश्वस्त
बेदयारः बेघर, खुलूसः निश्छलता, रब्तः संबंध, हमकिनारः आलिंगित   

सैयदा अनीस फातिमा....( फ़ातिमा हसन )
जन्मः 25, दिसम्बर, 1953, करांची, पाकिस्तान  

 


Sunday, September 15, 2013

Who says the Indians don't have a sense of humour?...........Vishal Das

Wanna go to India?
Leh–Manali highway in Northern India probably has the most unusual road signs in the world.

 










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If you don’t like something, change it.
If you can’t change it, change your attitude.
Don’t complain.

-Vishal Das-

Yahoo Group: sonu vishal

Friday, September 13, 2013

बचपन.................डॉ. जेन्नी शबनम


बचपन कब बीता बोलो
हँस पड़ा आईना ये कहकर,
काले गेसुओं ने निहारा ख़ुद को
चांदी के तारों से लिपटाया ख़ुद को !

चांदी के तारों ने पूछा
माथे की शिकन से हंसकर,
किसका रस्ता अगोरा तुमने ?
क्या ज़िन्दगी को हँसकर जीया तुमने ?

ज़िन्दगी ने कहा सुनो जी
हँसने की बारी आयी थी पलभर,
फिर दिन महीना और बीते साल
समय भागता रहा यूँ हीं बेलगाम !

समय ने कहा फिर
ज़रा हौले ज़रा तमक कर,
नहीं हौसला तो फिर छोड़ो जीना
'शब' का नहीं कोई साथी रहेगी तन्हा !

'शब' ने समझाया ख़ुद को
अपने आँसू ख़ुद पोछ फिर हँसकर,
बेरहम तकदीर ने भटकाया दर ब दर
अच्छा है लम्बी उम्र कटी अब बीता सफ़र !

-डॉ. जेन्नी शबनम

Thursday, September 12, 2013

पर राष्ट्र के माथे की बिंदी है ये हिन्दी...................मृणालिनी घुले








संस्कृत की एक लाड़ली बेटी है ये हिन्दी।
बहनों को साथ लेकर चलती है ये हिन्दी।

सुंदर है, मनोरम है, मीठी है, सरल है,
ओजस्विनी है और अनूठी है ये हिन्दी।

पाथेय है, प्रवास में, परिचय का सूत्र है,
मैत्री को जोड़ने की सांकल है ये हिन्दी।

पढ़ने व पढ़ाने में सहज है, ये सुगम है,
साहित्य का असीम सागर है ये हिन्दी।

तुलसी, कबीर, मीरा ने इसमें ही लिखा है,
कवि सूर के सागर की गागर है ये हिन्दी।

वागेश्वरी का माथे पर वरदहस्त है,
निश्चय ही वंदनीय मां-सम है ये हिंदी।

अंग्रेजी से भी इसका कोई बैर नहीं है,
उसको भी अपनेपन से लुभाती है ये हिन्दी।

यूं तो देश में कई भाषाएं और हैं,
पर राष्ट्र के माथे की बिंदी है ये हिन्दी।

- मृणालिनी घुले

Wednesday, September 11, 2013

दोहे....अन्सार कम्बरी की कलम से



केवल परनिंदा सुने, नहीं सुने गुणगान।
दीवारों के पास हैं, जाने कैसे कान ।।

सूफी संत चले गए, सब जंगल की ओर।
मंदिर मस्जिद में मिले, रंग बिरंगे चोर ।।

सफल वही है आजकल, वही हुआ सिरमौर।
जिसकी कथनी और है, जिसकी करनी और।।

हमको यह सुविधा मिली, पार उतरने हेतु।
नदिया तो है आग की, और मोम का सेतु।।

जंगल जंगल आज भी, नाच रहे हैं मोर।
लेकिन बस्ती में मिले, घर घर आदमखोर।।

हर कोई हमको मिला, पहने हुए नकाब।
किसको अब अच्छा कहें, किसको कहें खराब।।

सुख सुविधा के कर लिये, जमा सभी सामान।
कौड़ी पास न प्रेम की, बनते है धनवान ।।

चाहे मालामाल हो चाहे हो कंगाल ।
हर कोई कहता मिला, दुनिया है जंजाल।।

राजनीति का व्याकरण, कुर्सीवाला पाठ।
पढ़ा रहे हैं सब हमें, सोलह दूनी आठ।।

मन से जो भी भेंट दे, उसको करो कबूल।
काँटा मिले बबूल का, या गूलर का फूल।।

सागर से रखती नहीं, सीपी कोई आस।
एक स्वाती की बूँद से, बुझ जाती है प्यास।।

मन से जो भी भेंट दे, उसको करो क़बूल |
काँटा मिले बबूल का, या गूलर का फूल ||

जाने किसका रास्ता, देख रही है झील |
दरवाज़े पर टाँग कर, चंदा की कंडील ||

रातों को दिन कह रहा, दिन को कहता रात |
जितना ऊँचा आदमी, उतनी नींची बात ||

या ये उसकी सौत है, या वो इसकी सौत |
इस करवट है ज़िन्दगी, उस करवट है मौत ||

सूरज रहते 'क़म्बरी', करलो पुरे काम |
वरना थोड़ी देर में, हो जायेगी शाम ||

तुम तो घर आये नहीं, क्यों आई बरसात |
बादल बरसे दो घड़ी, आँखें सारी रात ||

छाये बादल देखकर, खुश तो हुये किसान |
लेकिन बरसे इस क़दर, डूबे खेत मकान ||

छूट गया फुटपाथ भी, उस पर है बरसात |
घर का मुखिया सोचता, कहाँ बितायें रात ||

कोई कजरी गा रहा, कोई गाये फाग |
अपनी-अपनी ढपलियाँ, अपना-अपना राग ||

पहले आप बुझाइये, अपने मन की आग |
फिर बस्ती में गाइये, मेघ मल्हारी राग ||

सूरज बोला चाँद से, कभी किया है ग़ौर |
तेरा जलना और है, मेरा जलना और ||

जब तक अच्छा भाग्य है, ढके हुये है पाप |
भेद खुला हो जायेंगे, पल में नंगे आप ||

बहुदा छोटी वस्तु भी, संकट का हल होय |
डूबन हारे के लिये, तिनका सम्बल होय ||

-अन्सार कम्बरी

Tuesday, September 10, 2013

बस नाम का ही भाग्य विधाता है आईना.................... डॉ. कुंवर बेचैन



अपनी सियाह पीठ छुपाता है आईना
सबको हमारे दाग दिखाता है आईना

इसका न कोई दीन, न ईमान ना धरम
इस हाथ से उस हाथ में जाता है आईना

खाई ज़रा-सी चोट तो टुकड़ों में बँट गया
हमको भी अपनी शक्ल में लाता है आईना

हम टूट भी गए तो ये बोला न एक बार
जब ख़ुद गिरा तो शोर मचाता है आईना

शिकवा नहीं कि क्यों ये कहीं डगमगा गया
शिकवा तो ये है अक्स हिलाता है आईना

हर पल नहा रहा है हमारे ही ख़ून से
पानी से अब कहाँ ये नहाता है आईना

सजने के वक़्त भी ये हमें दे गया खरोंच
बस नाम का ही भाग्य विधाता है आईना 

-डॉ. कुंवर बेचैन

Monday, September 9, 2013

मुहब्बत, तेरी खुशबू, चांदनी है, जाफरानी है...........डॉ. कुंवर बेचैन


न तो किरदार है कोई न राजा है न रानी है
मैं इक कोरा-सा कागज हूँ अजब मेरी कहनी है

मुहब्बत करने वाले,प्यार को दिल में रखे रखना
ख़ुदा ने जो  हमे बख़्शी है ये ऐसी निशानी है

जो दिन में चांद बनकर चांदनी देती रही मुझको
मुहब्बत, तेरी खुशबू, चांदनी है, जाफरानी है

घिरी है अब भी लपटों में, दिखाई कुछ नहीं देता
ये मेरी जिन्दगी है या धुंएँ की राजधानी है

शुरू से अंत तक कहती रही दुनियां में रहने दो
मगर कब मौत ने इस जिन्दगी की बात मानी है

नहीं तो कुछ दिनों में वो भी रेगिस्तान बन जाती
ये अच्छा ही हुआ अब तक मेरी आँखों में पानी है

अभी कर जिसके मैंनें अपनी आँखो से नहीं देखा
' कुंवर' मैंनें उसी के साथ मर-मिटने की ठानी है

-डॉ. कुंवर बेचैन
 
 

Sunday, September 8, 2013

रानी तक गर है राजा की, राजा तक रानी की हद....डॉ. कुंवर बेचैन



आंधी तक है तेज हवा की, बाढ़ों तक पानी की हद
पर राजाओं ने कब तय की, अपनी मनमानी की हद

मेहमानों का आदर करना,अच्छा है लेकिन यारों
मेहमां घर को ही ले बैठे. ये है मेहमानी की हद

याचक जो भी चाहे, उसके क्या वो ही दे देंगे हम
दानी से कहियेगा, कुछ तो होती है दानी की हद

सैलानी बनकर आए हो, क्या तुमको मालूम नहीं
औरों के घर में होती है, कुछ तो सैलानी की हद

ये तो है अन्याय, कि महलों को तो पूरी छूट मिले
और इधर तय कर दी जाए, हर छप्पर-छानी की हद

उत्तर में वो यह कह देंगे, अपनी सीमा कोई नहीं
परधानों से पूछ के देखो, उनकी परधानी की हद

उसके आगे खुशियां भी होंगी, मुझके मालूम नहीं
बस यह जाना, चिंता तक है, मेरी पेशानी की हद

हम तो अन्न उगाकर भी भूखे हैं, अब तुम बतलाओ
कुछ तो होगी, यार तुम्हारी भी तो हैरानी की हद

उसके बाद तो, कड़वाहट ही कड़वाहट है जीवन में
शायद बचपन तक ही है, ये मीठी गुड़धानी की हद

उसके राज में, जनता तो भूखी-प्यासी मरनी ही है
रानी तक गर है राजा की, राजा तक रानी की हद

डॉ. कुंवर बेचैन
जन्मः 01 जुलाई 1942, मुरादाबाद उ.प्र.
सौजन्यः रसरंग, दैनिक भास्कर

Saturday, September 7, 2013

बदनाम हुआ क्यों नाम 'संत'..............डॉ. रामकृष्ण सिंगी



क्यों गूंज रहे हैं दिग-दिगंत।
क्यों उछल रहे मुद्दे अनंत।।
बदनाम हुआ क्यों नाम 'संत'।
कब होगा पाखंडों का अंत ।।1।।
जरा सोचो तो!


राजनीति-धर्म की घाल-मेल ।
बरसती लक्ष्मी के घिनौने खेल।।
नैतिकता हुई शोबाजों की रखैल।
आमजन उदार, सब रहा झेल ।।2।।
जरा सोचो तो!


इक्कीसवीं सदी में भी (घोर) अंधविश्वास ।
शास्त्रों को मिला अज्ञातवास।।
श्रद्धाएं छुपी मन्नतों के आसपास।
नई पीढ़ी को लगने लगा सब बकवास ।।3।।
जरा सोचो तो!


श्रद्धा सीता का हो रहा हरण।
निष्ठा की द्रोपदी चीख रही।।
(राम गये हैं स्वर्ण-मृग के पीछे।)
पांडव बैठे कर नयन नीचे ।।)
कोई तो बचाओ रे इनको।
रक्षा की मांग ये भीख रहीं ।।4।।
जरा सोचो तो!


या कह दो सब बीमार हैं हम।
चुप रह कर हिस्सेदार हैं हम।।
जो रोता है उसे रोने दो।
ये भव्य तमाशे होने दो।।
श्रद्धा को पाखंड खा जायेगा।
तो कौन सा प्रलय आ जायेगा ।।5।। 
क्या यही सोच है ?


गर तंत्र-मंत्र का पाखंडी।
कोहरा यों ही गहरायेगा।।
(भोली) अबलाओं का यो ही शोषण होगा
और धर्म रसातल जाएगा 6।।


(पर) न्याय की नजर में समाजघात के
गर सच्चे पैमां होंगे।
कई बैठे हैं जो ऊंचे मंचों पर
वे 'उस घर' के मेहमां होंगे ।।7।।

(आमीन!)

डॉ. रामकृष्ण सिंगी, 
साहित्यकार, कवि, लेखक, महू

Friday, September 6, 2013

कायम है मेरे दम से रौनक बहार में..........डॉ. माणिक विश्वकर्मा

   
किस्तों में बंट रहा हूं शहर हो रहा हूं मैं,
पनघट था बाँसुरी था कहर हो रहा हूं मैं।

अस्तित्व मेरा खतरे में पड़ गया है आज,
कटने लगा नदी था नहर हो रहा हूं मैं।

लहरों से खेलते हैं जो ताउम्र बेवजह,
उनको सबक सिखाने भँवर हो रहा हँ मैं।

मंदिर में रहा जब तक कोई जानता ना था,
बाजार में आते ही खबर हो रहा हँ मैं।

कायम है मेरे दम से रौनक बहार में,
लोगों को छाँव देने शजर हो रहा हँ मैं।

-डॉ. माणिक विश्वकर्मा

Thursday, September 5, 2013

पिसती चक्की थी? या मां?..................दिविक रमेश



रोज सुबह मुंह अंधेरे
दूध बिलोने से पहले
मां चक्की पीसती
और मैं आराम से सोता
तारीफों में बंधी
मां
जिसे मैंने कभी सोते
नहीं देखा
आज जवान होने पर
एक प्रश्न घुमड़ आया है
पिसती चक्की थी?
या मां?
-दिविक रमेश

Wednesday, September 4, 2013

इस मफ़लिसी के दौर से बचकर रहा करे..........अनिरुध्द सिन्हा



इस मफ़लिसी के दौर से बचकर रहा करे
बाहर ज़मीं की धूल है अंदर रहा करे ।

दहलीज़ को खंगालती रहती हैं बारिशें
मिट्टी के इन घरों में भी छप्पर रहा करे ।

जिससे कि चाँद ख्वाब के दामन में रह सके
ऑंखों में वो यक़ीन का मंज़र रहा करे ।

रिश्तों को ऑंख से नहीं इतना गिराइए
कुछ तो बिछुड़ के मिलने का अवसर रहा करे ।

गलियों में एहतियात के नारों के बावजूद
तहदारियों के हाथ में पत्थर रहा करे ।

-अनिरुध्द सिन्हा

Tuesday, September 3, 2013

चलाए तीर जितने सब हुए अब बेअसर उनके..........डॉ. लोक सेतिया 'तन्हा'


उड़ाने ख्वाब में भरते, कटे जब से हैं पर उनके
अभी तक हौसला बाकी, नहीं झुकते हैं सर उनके।

यही बस गुफ्तगू करनी, अमीरों से गरीबों ने
उन्हें भी रौशनी मिलती, अंधेरों में घर उनके।

उन्हें सूली पे चढ़ने का तो कोई गम नहीं था पर
यही अफसोस था दिल में, अभी बाकी समर उनके।

कहां पूछा किसी ने आज तक साकी से पीने को
रहे सबको पिलाते पर, रहे सूखे अधर उनके।

हुई जब शाम रुक जाते, सुबह होते ही चल देते,
जरा कुछ देर बस ठहरे, नहीं रुकते सफर उनके।

दिए कुछ आंकड़े सरकार ने क्या-क्या किया हमने
बढ़ी गिनती गरीबों की, मिटा डाले सिफर उनके।

हमारे जख्म सारे वक्त ने ऐसे भरे 'तन्हा'
चलाए तीर जितने सब हुए अब बेअसर उनके।

-डॉ. लोक सेतिया 'तन्हा'

जम कर रह गये हैं जो बादल!!.................दफैरून


जम कर रह गये हैं बादल
बरस नहीं रहे अभी
शायद, न भी बरसें


फिर भी अपने लत्तर-पत्तर उठा कर
भीतर तो रख ही लो


अपनी मीनारों पर लगे
तड़ित चालकों को जाँच-परख लो


जमकर रह गये हैं जो बादल
शायद, बरस भी सकते हैं


समुद्र का समुद्र भरा है इनमें
हजारों बोल्ट की भरी है बिजली।


--दफैरून

दफैरुन को छोटी छोटी चीजों का कवि कहा जा सकता है। 
अंकिचन में कितना कुछ छिपा है यह दफैरून की कविताओं में आकार लेता है। दफैरुन जितना सहज लिखते हैं , उतना सहज जीते हैं यही कारण है कि आपकी कविताओं में अजीब सी आत्मीयता दिखती है 
जो आज कस्बों तक में लुप्त होती जा रही है। 
संपर्कः 48 , मोहन गिरि, विदिशा, मध्य प्रदेश -464001

Monday, September 2, 2013

आस्था.....................धर्मवीर भारती

रात
पर मैं जी रहा हूं निडर
जैसे कमल
जैसे पंथ
जैसे सूर्य
क्योंकि
कल भी हम मिलेंगे
हम चलेंगे
हम उगेंगे
और
वे सब साथ होंगे
आज जिनको रात ने भटका दिया है!
-धर्मवीर भारती

हमारा संयुक्त सफर....विपिन चौधरी

इस बार वह अपनी आँखो में
शहद भर कर लौटा
मैंनें मान लिया
अब मेरे दिन
मधुमक्खियों के सहारे ही कटेंगे...



जब वह अपने
बगल में आकाश को दबा कर
घर आता है
तो मेरी आँखों में काले बादल घुमड़ आते हैं

इस सच पर अपनी अंगुली रख ही दूँ कि
अब हम दोनों के बीच
मूक समझौते
इसी तरह बिना किसी करतल ध्वनि के
पारित होते आए हैं

-विपिन चौधरी

Sunday, September 1, 2013

धरती पर पहले पहल....विपिन चौधरी

एक तरफ की रोटी को
थोड़ा कच्चा रख
दूसरी तरफ को
थोड़ा ज्यादा पकाकर फूली हुई
रोटी को बना कर एक स्त्री
अनजानें में ही संसार की
पहली गृहस्थन बन गई होगी


जिस प्राणी की आँखों में पहले-पहल नग्न शिला देख
गुलाबी डोरों नें जन्म लिया होगा
उसे पुरुष का नाम दे दिया होगा

जो अपने मन - भीतर उठती सीली भाप
में यदा-कदा सुलग उठा हो
उसने ही आगे चल कर
प्रेम की राह पकड़ ली होगी

धरती ने
मनुष्यो की इन कोमल गतिविधियों पर खुश होते हुए
अपने सभी बन्द किनारे खोल दिये होंगें

फिर एक दिन जब पुरुष,
स्त्री को चारदिवारी भीतर रहने को कह
अपने लिये यायावरी निश्चित कर
बाहर खुले आसमान में निकल आया होगा
तब धरती चाह कर भी अपने खुले हुए
किनारों को समेट ना पाई होगी....

--विपिन चौधरी

हालात से दो-दो हाथ............श्रीराम मीणा


देखिये उन बस्तियों को, फिर जलाता कौन है।
देखिये उन कश्तियों को, फिर डुबाता कौन है॥

गश्त, एवं कर्फ्यू का नाम आजादी नहीं-।
देखिये उन गश्तियों को, फिर लगाता कौन हैं॥

हम सभी भूखों मरें, वे राज हम पर कर रहे-।
देखिये उन हस्तियों को, फिर बनाता कौन हैं॥

हमने अपने खून से, हर शब्द लिक्खा है जहां।
देखिये उन नश्तियों को, फिर जलाता कौन हैं॥

चलाते चमड़े के सिक्के, एक दिन के बादशाह।
देखिये उन भिश्तियों को, फिर बनाता कौन हैं॥

-श्रीराम मीणा

वक्त का तूफाँ आँसू पोंछ डालेगा.......सुशील सरित


कश्तियां खेते रहो साहिल पुकारेगा
वक्त का तूफाँ आँसू पोंछ डालेगा
आज यदि मंझधार में हो कल यही दरिया
खुद-ब-खुद उठकर किनारे पर उछालेगा

ठोकरों ने कर दिया है पांव घायल
किन्तु रुकने के समझ लो हम नहीं कायल
लड़खड़ाते ही सही चलना ज़रूरी है,
रास्ता कदमों को खुद सम्हालेगा

सफ़र है लम्बाअंधेरा भी घना गहरा
भय भटकने का यहां हर मोड़ पर पहरा
किन्तु यह तय है उसी की बस विजय होगी
अन्त तक जो दौड़ में हिम्मत न हारेगा

-सुशील सरित

सौजन्यःदेशबन्धु, रायपुर