Tuesday, January 21, 2014

वो ख्वाब....जो करीने-कयास थे................ज़हूर नज़र


दिन ऐसे तो यूं आए ही कब थे जो रास थे
लेकिन ये चंद रोज तो बेहद उदास थे

उनको भी आज मुझसे हैं लाखों शिकायतें
कल तक जो अहले-बज़्म सरापा-सियास थे

वो गुल भी ज़हर-ख़ंद की शबनम से अट गए
जो शाख़सार दर्दे - मुहब्बत की आस थे

मेरी बरहनगी पे हंसे हैं वो लोग भी
मशहूर शहर भर में जो नंगे-लिबास थे

इक लफ़्ज भी न मेरी सफ़ाई में कह सके
वो सारे मेहरबां जो मिरे आस-पास थे

तेरा तो सिर्फ़ नाम ही था, तू है क्यों मलूल
बाईस मिरे जुनू का तो मेरे हवास थे

वो रंग भी उड़े जो नज़र में न थे कभी
वो ख्वाब भी लुटे जो करीने-कयास थे

-ज़हूर नज़र
जन्मः 22 अगस्त, 1923, मिंटगुमटी, साहीवाल

अहले-बज़्मः सभा में उपस्थित, सरापा-सियासः बहुत अधिक गुणगान करने वाले, ज़हर-ख़ंदः खिसियानी, शाख़सारः जहां बहुत सारे पेड़ हों, बरहनगीः नग्नता, नंगे-लिबासः नग्न, मलूलः उदास, बाईसः कारण, हवासः इन्द्रियां, करीने-कयासः जो बात अटकल और अन्दाजे से ठीक हो

3 comments:

  1. वाह यशोदा जी, बहुत खूबसूरत ग़ज़ल साँझा की है।

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  2. ज़िस्तो-जाँ निन्यानवे के फेरो में ही उलझी रही..,
    खुशियाँ गर उनचास थी तो ग़म भी पचास थे.....

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