Friday, November 17, 2017

दीवारों की सीलन…उफ़...गौतम राजरिशी

ठिठुरी रातें, पतला कम्बल, दीवारों की सीलन…उफ़
और दिसम्बर ज़ालिम उस पर फुंफकारे है सन-सन …उफ़

दरवाजे पर दस्तक देकर बात नहीं जब बन पायी
खिड़की की छोटी झिर्री से झाँके है अब सिहरन…उफ़

छत पर ठाठ से पसरा पाला शब भर खिच-खिच शोर करे
सुब्ह को नीचे आए फिसल कर, गीला-गीला आँगन…उफ़

बूढ़े सूरज की बरछी में जंग लगी है अरसे से
कुहरे की मुस्तैद जवानी जैसे सैनिक रोमन…उफ़

ठंढ के मारे सिकुड़े-सिकुड़े लोग चलें ऐसे जैसे
सिमटी-सिमटी शरमायी-सी नई-नवेली दुल्हन…उफ़

हाँफ रही है धूप दिनों से बादल में अटकी-फटकी
शोख़ हवा ऐ ! तू ही उसमें डाल ज़रा अब ईंधन…उफ़

जैकेट-मफ़लर पहने महलों की किलकारी सुन-सुन कर
चिथड़े में लिपटा झुग्गी का थर-थर काँपे बचपन…उफ़

पछुआ के ज़ुल्मी झोंके से पिछवाड़े वाला पीपल
सीटी मारे दोपहरी में जैसे रेल का इंजन…उफ़
(01955-213171, 9419029557)

8 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज शुक्रवार (17-11-2017) को
    "मुस्कुराती हुई ज़िन्दगी" (चर्चा अंक 2790"

    पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बेहतरीन अभिव्यक्ति !!!

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  3. मन को छूती प्यारी रचना बहोत सुन्दर

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